आजाद
मेने ही लग्वयी थी यह कुंडी,
तुमसे जाते जाते,
सबके लिये घर खली था।
तुम्हारे जाने के बाद,
और ना कोई आ पाये,
इसलिये ही तो लग्वयी थी कुंडी,
पर तुम क्यू नही अए?
तुम्हे तो पता था ना,
मे हू अंदर, तन्हा, तुम्हारे इन्तज़ार मे,
फिर तुम क्यू नही अए?
क्यू रहने दिया मुझे अकेला?
मे जानती हू कुंडी थी, ताला नही,
मे बाहर आ सकती थी।
पर तुम क्यू नही अए?
लम्हे, दिन, साल गुजरते गये,
तुम क्यू नही अए?
फिर एक दिन, मेरी बुझी हुई आंखो ने मुझसे पुछा,
तू खुद क्यु नही खोलती कुंडी?
शोर मचा, चुप क्यू बैठी है?
उस दिन जब मेने ज़बा पे लगा ताला खोला,
सारी कुंडीया खुल गयी।
मे तुम्हारी नही, में अपनी सोच की गिरफ्तार थी।
जब में ही अपने लिये नही आयी, तो तुम क्या आते।
पर अब मे हू आजाद, हर गिरफ्त से।
अपनी सोच और तुम्हारी यादो की गिरफ्त से आजाद।
अब मे हू, जी खोले के जीने को तैयार......
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