रुक्कू की दीदी (Part 1)

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बहोत दिन हो गये थे, उसका मन उचाट सा था, किसी बात पे दिल खुश नही होता। वो सारे काम करती, पर बेमन से। क्युकि सब कुछ ठीक हो रहा था, किसी का ध्यान नही गया उसकी ओर। उसने भी किसी से कुछ ना कहा। कहती भी क्या? उसने ही तो हा कही थी। पर उसका मन नही मान रहा था, मन ना हा मे खुश था, और ना ना मे।

रह रह कर उसे दीदी की याद आ रही थी। दीदी ने उसके लिये बहोत किया था, दीदी हमेशा से चाहती थी, की जो वो ना कर पायी वो रुक्कू करे। रुक्कू को जिन्दगी ने ऐसे दो राहे पे खड़ा कर दिया था, जहा उसे कुछ समझ मे नही आ रहा था। पर उस्ने अपनी इछाओ से उपर दीदी की जिम्मेदारियो को रख्ने की ठान ली।

उसने मन से सारी वो बातें निकल दी, जो उसे अपनी पुरानी जिन्दगी की याद दिलाए। माँ के साथ अपने आने वाले कल की तैयारी मे लग गयी। रोज उठती कुछ नया पकवान सिखाती, कुछ घर के काम काज सिखती, दिन ऐसे ही बितने लगे। देखते देखते 2 महिने बीत गये, अभी भी, कभी-कभी दीदी को याद कर आंखे नम हो जाती। पर फिर वो जल्दी से मन बदल आंखे पोछ, किसी काम मे लग जाती। शादी के दिन भी नजदीक आ राहे थे। तैयारियाँ तो चल रही थी, पर कोई हर्ष-उल्लाष नही था। बस सारे लोग अपनी जिम्मेदारियां तार रहे थे।

नये गहने नही बनवाये गये, बस कुछ कपडे नये खरीदे गये। जैसे जैसे शादी का दिन नजदीक आ रहा था, रुक्कू का तन-मन कमजोर होता जा रहा था। माँ सब देख रही थी, पर चुप थी। माँ के पास भी कोई राह नही थी।

(Part 2 - coming soon)

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